
गंधर्व काल का नेपथ्य
द. ग. गोडसे
‘गंधर्वकाल’ का अर्थ है… बालगंधर्व और गंधर्व कंपनी के बढ़ते उत्साह और बढ़ते वैभव का १९१३ से १९३३ का कालखंड!
मराठी रंगमंच के इतिहास के इस कालखंड में बालगंधर्व के ‘राजहंसी’ गानों, उनके स्त्री-सुलभ लगने वाले सहज अभिनय ने मराठी दर्शकों को कई वर्षों तक कितना मोहित किया था. इस बारे में आज तक बहुत कुछ लिखा गया है. इतना ही नहीं, इस मोहिनी का जादू ऐसा लोकविलक्षण था कि बालगंधर्व के रूप-स्वरूप, उनके अभिनय और सबसे महत्वपूर्ण उनके गाने के प्रभाव के आगे रंगमंच का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता था और रंगमंच पर होने वाले नाट्य-प्रसंग, रंगमंच पर अन्य नट, उनका अभिनय, उनके गाने को जैसे महत्व नहीं रह जाता था, वैसे ही रंगमंच पर नेपथ्य को भी उतना महत्व नहीं रहता था. आज लगता है कि नेपथ्य के बिना केवल काले पर्दे पर भी उस समय के उत्साही बालगंधर्व अपने व्यक्ति-विशिष्ट अभिनय और विशेष रूप से अपने स्वर-मधुर गानों से उतने ही सफल साबित हुए होते. बालगंधर्व के नाटकों को नाट्यानुकूल, वास्तविक नेपथ्य की उतनी आवश्यकता ही नहीं थी. वह स्वयं गंधर्वों को नहीं थी, वैसे ही गंधर्व मंडली के दर्शकों को भी नहीं थी. आवश्यकता थी तो वह बालगंधर्व के गाने और अभिनय को और – केवल इनको ही – उभार देने वाले चमकदार मखर की थी. परिणामस्वरूप बुद्धिपूर्वक कहें या अनजाने में कहें.. गंधर्व कंपनी का नेपथ्य रंगमंच का एक महत्वपूर्ण अंग होने के नाते हमेशा उपेक्षित रहा. अधिकांशतः वह मखर जैसा ही होता था! मराठी रंगमंच के इतिहास में एक संयोग ऐसा है कि गंधर्व कालखंड से पहले श्रीपाद कृष्ण कोल्हटकर के नाटकों से नाट्य रचना की तकनीक में, पदों की चाल में, नाटक की भाषा शैली में किर्लोस्करी नाट्य तकनीक से सर्वथा भिन्न ऐसे क्रांतिकारी बदलाव हो रहे थे. महत्वपूर्ण बदलाव यह थे कि, नाटकों में नायकों की अपेक्षा नायिका को सर्वाधिक प्राथमिकता देना नाटककारों को भी नाट्य-दृष्टि से महत्वपूर्ण लग रहा था. श्री. कृ. कोल्हटकर, खाडिलकर, गडकरी के नायिका प्रधान नाटकों को ध्यान में लाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिए. एक समय मराठी गद्य रंगमंच पर धूम मचाने वाले नाटककार खाडिलकर गंधर्व कंपनी स्थापित होने के बाद उसके आधारस्तंभ थे. गंधर्व कंपनी के लिए उन्होंने लिखे संगीत प्रधान नाटक बालगंधर्व के कारण नायिका प्रधान हो जाएं, यह नाट्य लेखन की दृष्टि से न सही, लेकिन गंधर्व मंडली के नाट्य-व्यवसाय की दृष्टि से स्वाभाविक था, उतना ही आवश्यक भी था.
फायदेमंद लोकप्रियता लेकिन…
ऐसी स्थिति में खाडिलकर के सर्वथा नायिका प्रधान नाटकों में बालगंधर्व के गाने और अभिनय को नेपथ्य के बजाय मखर की ही अधिक आवश्यकता थी. इस मखर में उत्सव मूर्ति यानी एकमात्र बालगंधर्व! उनकी वेशभूषा, उनका गाना ही नाट्य प्रयोग में महत्वपूर्ण! परिणामस्वरूप गंधर्वों के नाटकों में. वेशभूषा और उनके गाने का साथ देने वाले संगीत वादकों को ही अधिक महत्व मिला. गंधर्व काल में गंधर्व मंडली के नाट्य-प्रयोगों में दिखने वाले बालगंधर्व की वेशभूषा के विभिन्न प्रकार याद आए और कादरबख्श, अहमदजान तिरखवाँ, ऑर्गन वादक कांबळे जैसे गंधर्वों द्वारा संभाले गए श्रेष्ठ संगीत वादकों को देखा जाए तो, गंधर्व कंपनी के नाट्य प्रयोग में किन बातों को महत्व दिया जाता था, यह स्पष्ट हो जाना चाहिए! रंगमंच पर बालगंधर्व जैसी केशभूषा और वेशभूषा करके उनके जैसे ही चलने और बोलने का प्रयास करके ‘डिट्टो गंधर्व’ बनने की कोशिश करने वाली पुणे-मुंबई के सुख-संपन्न समाज की उच्च वर्ग की महिलाओं को याद किया जाए और गंधर्वों का ही अनुकरण करके नाट्य पद गाने वाले स्त्री-पुरुष गायकों को याद किया जाए तो, गंधर्वों के व्यक्तित्व का प्रभाव उस समय कितना सर्वव्यापी था, यह पता चलता है. दर्शकों की दृष्टि से गंधर्वों की यह लोकप्रियता प्रशंसनीय थी और व्यावहारिक हिसाब से तो वह फायदेमंद भी साबित हो रही थी, लेकिन नाट्य व्यवसाय को व्यावहारिक हिसाब का अर्थपूर्ण आयाम होना आवश्यक है, लेकिन वही उसका एकमात्र आयाम नहीं होता. बल्कि नाट्य व्यवसाय को गुणवत्ता का अगोचर लेकिन महत्वपूर्ण आयाम इतना बड़ा होने का स्पष्ट अनुभव होता है कि, नाट्य व्यवसायियों द्वारा केवल व्यवहार और लोकप्रियता पर ध्यान रखकर गुणवत्ता के आयाम की अनदेखी करने या उसके प्रति उदासीन रहने पर, अन्यथा लोकप्रियता और सफल लगने वाला नाट्य व्यवसाय नाट्य कला के चित्रगुप्त के हिसाब में अप्रगत, अचल असफल ही साबित होता है. इस दृष्टि से भी गंधर्व और गंधर्व कंपनी की नाट्य सेवा का मूल्यांकन गंधर्व काल के अन्य नाट्य व्यवसायियों की तुलना में लेना चाहिए! गंधर्व काल के कुछ प्रतिष्ठित गिने-चुने व्यवसायियों की नाट्य व्यवसाय के प्रति जागरूक निष्ठा देखी जाए, इस निष्ठा को बनाए रखने के लिए उन्होंने किए गए सफल-असफल प्रयासों को ध्यान में लिया जाए तो, बालगंधर्व,”””गंधर्व कंपनी और उनके अन्य समकालीन नाट्य व्यवसायी में नाट्यकला के प्रति निष्ठापूर्वक आस्था रखने वाले कौन थे, रंगमंच को विशेष रूप से उन्नत, गतिशील रखने वाले कौन थे, इसकी कल्पना की जा सकती है.
नाट्यकला की उन्नत गतिशीलता यह विषय बहुत बड़ी व्याप्ति का है. इतनी सर्वांगीण समीक्षा इस लेख में अभिप्रेत नहीं है. नेपथ्य यह नाट्यकला का एक अंग होने के नाते इस अंग का ही विचार प्रस्तुत लेख में करना है और यह विचार भी गंधर्व काल के गंधर्व कंपनी और समकालीन अन्य नाट्य व्यवसायी के लिए ही सीमित रखना आवश्यक है. उन्नत फिर भी नाट्यानुकूल केवल नेपथ्य की दृष्टि से आज विचार किया… तो अत्यधिक लोकप्रियता और सांपत्तिक सफलता प्राप्त करके भी… गंधर्व कंपनी… उस समय की अन्य नामवंत कंपनियों की तुलना में, नेपथ्य के मामले में पूरी तरह उदासीन थी ऐसा स्पष्ट महसूस होता है! गंधर्व कंपनी के नेपथ्य की कल्पनाएं ही अलग थीं ऐसा भी समर्थन नहीं किया जा सकता. क्योंकि रंगमंच पर का नेपथ्य यह एक सहेतुक, योजनाबद्ध निर्मिति होती है और यह निर्मिति पूरी तरह नाट्यधर्मी होना ही अभिप्रेत होता है. इसमें अलगपन हो सकता है वह ‘प्रकार का’, ‘जाति’ का नहीं ! इसीलिए कोई भी केवल उत्सवी सजावट अथवा झगमगीत मखर यह नेपथ्य नहीं हो सकता. गंधर्व काल में ही समकालीन पारसी गुजराती कंपनियों का तथाकथित नेपथ्य, सही अर्थ में नेपथ्य नहीं था बल्कि रंगमंच पर झगमगाता हुआ एक ‘मखर’, ऐसा समकालीन मराठी नाट्य समीक्षकों ने भी नोट करके रखा है. इस झगमगाहट का जादू कुछ मराठी नाट्य-व्यवसायियों पर भी उस समय पड़ता हुआ पाया गया. इसको भी उस समय के कुछ निष्ठावान नाट्य व्यवसायी अपवाद दिखाई देते हैं. इन निष्ठावानों के नेपथ्य प्रयासों का पता लगाकर गंधर्व काल में ही नेपथ्य विषयक सूक्ष्म जानकारी उन्नत और विकासशील रखने के सचेत प्रयास गंधर्व कंपनी की अपेक्षा अन्य कुछ कंपनियां ही कैसे कर रही थीं, यह स्पष्ट करना आवश्यक है. इस संदर्भ में मुख्य रूप से उल्लेख करना है वह ‘ललितकलादर्श मंडली’, उसके सूत्रधार श्री. केशवराव भोसले, श्री. बापूराव पेंढारकर, ‘शिवराज’ नाटक: कंपनी के श्री. गोविंदराव टेबे और ‘भारत’ कंपनी के श्री. य. ना. उर्फ अप्पा टिपणीस का. केशवराव भोसले, बापूराव पेंढारकर और गोविंदराव टेंबे ये तीनों ही संगीतज्ञ तो थे ही लेकिन दो नाटक कंपनियों के सूत्रधार-मालिक भी थे. इतना ही नहीं तो तीनों ही उनके संगीत के लिए लोकप्रिय भी थे. लेकिन नाट्य को विकसित करने के लिए आवश्यक नेपथ्य आदि रंगमंच के अन्य अंगों के बारे में भी वे संगीत जितना ही जागरूक थे ऐसा महसूस होता है. विशेष बात यह है कि नेपथ्य के बारे में वे केवल जागरूक नहीं थे बल्कि नेपथ्य उन्नत और गतिशील कैसे होगा इसका भी वे पूरी कोशिश से विचार कर रहे थे ऐसा भी उनके प्रयासों से स्पष्ट होता है. यह ध्यान में लेते हुए नाट्य का एक महत्वपूर्ण अंग होने के नाते वे उनके नाटकों का नेपथ्य हर बार उन्नत फिर भी नाट्यानुकूल करने के प्रयास कैसे कर रहे थे यह देखना उद्बोधक होना चाहिए!
केशवराव अपनी भूमिकाओं का और दूसरों की भूमिकाओं का जितना नाट्य के संदर्भ में विचार करते उतना ही नाट्य को विकसित करके रसोत्कर्ष साधने में उपयुक्त ठहरने वाले नाट्य संगीत का और नाट्य नेपथ्य का भी सूक्ष्म विचार करते. और नाट्य गायन, नाट्य संगीत और नाट्य नेपथ्य हर नए नाटक से कैसे प्रगतिशील रहेगा इसकी चिंता करते. अनेक गायन तपस्वियों से शास्त्रोक्त संगीत की तालीम लेकर भी, केशवराव ने अपना नाट्य गायन रस परिपोष होने तक ही संयमी रखा था. नाट्य गायन की संगीत महफिल नहीं होने दी ऐसा समकालीन नाट्य समीक्षक भी बताते हैं.
केशवराव के बाद उनका नाट्यधर्मी संयम पेंढारकर ने भी पाला. केशवराव का अलग तरीका केशवराव और पेंढारकर की यही नाट्यधर्मी दृष्टि. नाटक के नेपथ्य के बारे में भी ऐसी ही होनी चाहिए ऐसा ललितकला- दर्श के अलग नेपथ्य से महसूस होता है. गंधर्व कंपनी के वैभवशाली काल की ही यह अलग दृष्टि है. यह विशेष रूप से ध्यान में रखना चाहिए. इसलिए रंगमंच पर के नेपथ्य के लिए उन दोनों ने जो परिश्रम किए वह देखना आवश्यक है. केशवराव भोसले के कार्यकाल में नाटक की पृष्ठभूमि… उस समय की व्यावसायिक प्रथा के अनुसार रेल के पर्दों पर ही रंगी हुई होने पर भी समकालीन पारसी गुजराती कंपनियों जैसे ये पर्दे ‘भड़कीले’ नहीं होंगे इस बारे में केशवराव विशेष रूप से जागरूक होंगे ऐसा ललितकलादर्श के पुराने पर्दे, देखते समय महसूस होता था. खोज करने पर पता चला कि केशवराव ने ये पर्दे श्री. बाबूराव पेंटर और उनके भाई आनंदराव मिस्त्री इन निपुण चित्रकारों से विशेष रूप से रंगवाए थे. इसमें केशवराव की नाट्यानुकूल सूक्ष्म सौष्ठव दृष्टि ही प्रतीत होती है. विशेष बात यह है कि इन दोनों ही चित्रकारों ने उस समय रंगवाए गए पर्दों में समकालीन मराठी कंपनियों के पर्दों पर पाया जाने वाला पारसी,”””गुजराती कंपनियों के पर्दों की आँखों को चुभने वाली और मंच के पात्रों को सचमुच खा जाने वाली, भड़कीलापन तो नहीं होता था, बल्कि उनका चित्रण इतना कोमल फिर भी हृदयस्पर्शी और मनोहर होता था कि उसे देखते ही जानकार दर्शकों को अभिजात फ्रेंच प्रकृति चित्रण की शैली याद आ जाए. मंच की सजावट स्पष्ट होते हुए भी कितनी सीमित होनी चाहिए, विशेष रूप से यह मंच के परिप्रेक्ष्य में ही होनी चाहिए, इसकी सटीक समझ केशवराव के साथ-साथ इन कलाकार बंधुओं को भी थी, यह स्पष्ट है. रंगमंच की सजावट की दृष्टि से इन जानकारों का हृदयस्पर्शी सहयोग उस समय जितना नवीन था, उतना ही मराठी रंगमंच की सजावट को प्रगतिशील बनाने वाला भी था. इसमें कोई संदेह नहीं है. केशवराव की विशेषता यह थी कि वे केवल व्यावसायिक लोगों पर निर्भर न रहकर अन्य क्षेत्रों के समानधर्मी कलाकारों को ठीक से ढूंढकर, उनके सहयोग से उन्होंने केवल ललितकलादर्श की सजावट को ही परिष्कृत और उन्नत नहीं किया, बल्कि मराठी रंगमंच की सजावट को ही एक नया विशिष्टता, संयमशील मोड़ दिया. केशवराव के बाद गंधर्व कंपनी की तरह अन्य कंपनियों ने भी बाबूराव पेंटर और आनंदराव मिस्त्री से कई पर्दे रंगवाए हुए पाए गए, फिर भी अग्रपूजा का मान केशवराव भोसले को ही देना चाहिए, यह निश्चित है!
नाट्यानुकूल संयम
केशवराव के निधन के बाद पेंढारकर ने भी पु. श्री. काले जैसे कल्पनाशील चित्रकार की सहायता से ललित कला की सजावट की प्रगतिशील यात्रा जारी रखी और मराठी रंगमंच पर आधुनिक बॉक्ससेट बनाने का साहस करके मराठी सजावट को एक नया आयाम प्राप्त कराया. ललितकलादर्श की प्रारंभिक सजावट बाबूराव पेंटर, आनंदराव मेस्त्री की चित्रण शैली के कारण कल्पनाशील मानी जाती है, तो पु. श्री. काले की सजावट अधिक यथार्थवादी ठहरती है. आज लगता है, उस समय की मराठी अभिरुचि की वह आवश्यक आवश्यकता थी. उस समय का नाट्य लेखन भी कल्पनाशील पौराणिक, ऐतिहासिक काल से वर्तमान वास्तविकता का अधिक शोध कर रहा था. बल्कि नाट्य लेखन की वह आवश्यकता थी. ललितकलादर्श के सुविज्ञ सुजान संचालकों ने इस आवश्यकता पर ध्यान दिया, वैसे ही ललितकलादर्श की सजावट ने भी तत्परता से ध्यान दिया. पु. श्री. काले की यथार्थवादी सजावट इस तत्परता का परिणाम थी. ‘सत्ता के गुलाम’ नाटक में मुंबई की प्रिंसेस स्ट्रीट का, ‘अशोक स्टोर्स’ इस परिचित बोर्ड सहित सही सही चित्रित किया गया दृश्य, नाटक की नायिका नलिनी गोखले के बैठकखाने का बॉक्स सेट, हेरंबराव का पूजाघर और नाटक का नायक वैकुंठ के चेंबूर स्थित खेत का दृश्य, खेत पर की झोपड़ी, इतना ही नहीं, खेत पर के रखवाले कुत्ते सहित सारे दृश्य मराठी रंगमंच पर पहली बार दिखाई देकर दर्शकों को यथार्थ सजावट का यह दर्शन एक अलग ही आनंद दे रहा था और उनकी सहज तालियाँ बटोर रहा था. आगे ललितकलादर्श के ‘श्री’ नाटक में इस यथार्थप्रियता की हद – रंगमंच पर घोड़ों की रेस का प्रत्यक्ष लिया गया चित्रपट दिखाने तक गई. ललितकलादर्श के नाटकों में श्री. काले के कई दृश्यों को गाने की तरह ही दर्शकों से सहज ‘ताली’ मिलती थी! ‘पर्दे को ताली’ यह काले की सजावट की बाद में विशेषता ही हो गई. लेकिन काले की सजावट की अलग और महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि पर्दे को ताली मिलती है, इसलिए उनकी सजावट गाने को वन्समोअर लेने वाले नट की तरह, रंगमंच पर अपनी पृष्ठभूमि की जगह भूलकर कभी भी दर्शकों पर नहीं आती थी, अथवा रंगमंच पर अपना आडंबर भी नहीं फैलाती थी. नाट्यधर्मी रंगमंच पर अभिनय, संगीत और सजावट की भूमिकाएँ और जगहें तय होती हैं. इनमें से कोई भी अपनी सीमा छोड़कर व्यवहार करे, तो नाट्य प्रयोग को ही दाग लगता है. किर्लोस्कर मंडली, स्वदेश हितचिंतक मंडली का यह नाट्यबीज था. ललितकलादर्श ने भी यही व्रत लिया था. इसीलिए ललितकलादर्श के ये तीनों अंग नाट्यानुकूल मर्यादा का पालन करते थे. काले की सजावट ने अपनी ”नाट्यधर्मी’ संयम की सीमा अंत तक कभी नहीं छोड़ी. यह जैसे काले की सजावट का श्रेय है, वैसे ही ललितकलादर्श की कल्पनाशील प्रायोगिकता की अभिमानस्पद विशेषता मानी जानी चाहिए.
लाड पूरा करने के लिए
नवीनता का जुनून ललितकलादर्श को शुरुआत से ही था. लेकिन इस जुनून को ‘ध्यास’ कहना अधिक उपयुक्त होगा. नवीनता के ध्यास के कारण ललितकलादर्श के कल्पनाशील संचालक खर्च करने को भी तैयार रहते थे. लेकिन यह ध्यास हमेशा रंगमंच के संदर्भ में ही होता था, किसी एक की ही व्यक्तिगत पसंद-नापसंद का नहीं, अथवा केवल एक ‘चूस’ के रूप में भी नहीं, यह प्रस्तुत विषय में ध्यान में रखना आवश्यक है. गंधर्व कंपनी के संदर्भ में कुछ मनोरंजक बातें बड़े कौतुक से बताई जाती थीं और अभी भी बताई जाती हैं. “अस्सी रुपये जोड़ी के जूते, बीस हजार रुपये के असली कलाबतू के गलीचे, हजार पाँच सौ रुपये का चांदी का मुकुट,”सोने के पानी चढ़े गहने, हजार-दो हजार के भारी शाल और पैठणियां, नाटक चल रहा हो तो अपना ‘सोग’ कैसा दिखता है यह समझने के लिए दोनों तरफ के हर विंग में रखे बड़े-बड़े शीशे, पेरिस से मंगवाए गए बालों, दाढ़ी-मूंछों के टोप (विग्स), प्रेक्षागृह में हर जगह मारे जाने वाले इत्र के फव्वारे वगैरह वगैरह !! आज ये कहानियां याद आती हैं या सुनी जाती हैं तो सवाल उठता है कि यह सब आखिर किसलिए था? रंगमंच के लिए इन चीजों की उतनी आवश्यकता नहीं थी. नेपथ्य का भी वह हिस्सा नहीं था बल्कि रंगमंच को मखर मानकर उसे सजाने का यह प्रयास था और मखर में उत्सव मूर्ति की व्यक्तिगत पसंद और भोले लाड पूरे करने के लिए ही वे थीं ! गंधर्व काल के ही नाट्य व्यवसायी श्री. गोविंदराव टेंबे कहते हैं- “नाटक कंपनी नेपथ्य की दृष्टि से बहुत कम पूंजी में खड़ी की जा सके ऐसी मेरी शुरू से ही कल्पना थी और शिवराज कंपनी में उसे मैं अमल में ला सका. किफायत की इसलिए कुछ कपड़ों की, वाद्यों की या किसी भी चीज की कमी या दैन्य नहीं दिखने दिया. नाटक यह संस्था ही मूल रूप से नकली. उसमें असली चीजों का प्रयोजन क्या, ऐसा लगता था. अभिनय भी असली लगे तो भी वह अभिनय ही ! और रंगमंच तक ही उसकी प्रतिष्ठा ! फिर ऐसे नकली व्यवसाय के लिए बेवजह असली और बहुमूल्य उपकरण इस्तेमाल करने से असली कला का गौरव नहीं होता और पैसे का व्यय मात्र होता है और नाट्य व्यवसाय यह हाथी का कलेवर होकर रह जाता है.” (मेरा जीवनविहार) टेंबे की शिवराज कंपनी की तरह ही ललितकला दर्शने भी यह सफेद हाथी पालने का निरर्थक महंगा और नाट्य-निषिद्ध व्यवसाय नहीं किया.
मखमली पर्दा और यांत्रिक घंटा
नवीनता के ध्येय के कारण ललितकलादर्श के संचालक नेपथ्य से प्रत्यक्ष संबंध न रखने वाली चीजों पर खर्च करते थे यह सच है. परिणामस्वरूप यह खर्च मराठी रंगमंच को उन्नत और अनुशासित बनाने में कारण बना ऐसा आज स्पष्ट होता है. केशवराव भोसले के समय में नाटक कंपनियों का दर्शनी पर्दा रोलर का होता था और उस पर कोई पौराणिक चित्र रंगा होता था. केशवराव ने यह व्यवस्था बदलकर दर्शनी पर्दा (ड्रॉप) के रूप में उस समय के हिसाब से महंगा लगने वाला मखमली का एकरंगी पर्दा लगाया. बाद में अन्य कंपनियों ने उसका अनुकरण किया हुआ पाया गया तो भी रंगमंच पर पहला मखमली ड्रॉप लाए केशवराव भोसले ही. साथ ही प्रस्तुत लेखक की जानकारी के अनुसार नाटक कंपनी की पूर्वप्रसिद्ध घंटा बदलकर, उसकी जगह बिजली की यांत्रिक घंटे की योजना की वह केशवराव ने और बिजली की घंटे के साथ ही नाट्य प्रयोग तय समय पर ही शुरू करने की कड़ी अनुशासन ललित कला के नाट्य प्रयोगों को लगाई वह भी केशवराव ने ही. ये प्रत्यक्ष नाट्य प्रयोग से संबंध न रखने वाली चीजें लगीं तो भी मराठी रंगमंच की व्यावसायिक दृष्टि से वे महत्वपूर्ण साबित होती हैं यह नकारा नहीं जा सकता.
आप्पा का काम
थोड़े बहुत अंतर से गंधर्व काल के नेपथ्य के संदर्भ में विशेष रूप से उल्लेख करने योग्य एक और व्यक्ति यानी श्री. यशवंत नारायण उर्फ आप्पा टिपणीस. लॉर्ड सिडनहॅम इस अंग्रेज गवर्नर द्वारा मराठी रंगमंच से हटाए गए छत्रपति शिवाजी को उनके साज-सूरत सहित फिर से स्थापित करने वाले आप्पा टिपणीस. आज मराठी रंगमंच पर दिखने वाले शिवाजी का अंगरखा, जिरेटोपा का सोंग यह आप्पा की शोधक दृष्टि की निर्मिति है यह शायद अनेक शिवशाहीरों को पता न होने की संभावना है. आप्पा सिर्फ कल्पनाशील, शोधक नहीं थे बल्कि ऐतिहासिक नाटकों के ‘यथातथ्य’ नेपथ्य के संदर्भ में क्रियाशील नेपथ्यकार थे. दुर्भाग्य से उनका नेपथ्य विषयक महत्वपूर्ण काम भुला दिया गया हो तो भी नेपथ्य के ही संदर्भ में लिखे गए लेख में आप्पा का कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करना कर्तव्य बनता है. ‘बहुरूपी’ इस ग्रंथ में श्री. चिंतामणराव कोल्हटकर बताते हैं कि नाटक के लिए बनाने पड़ने वाले पर्दे, विंग, झालर, फ्लैट्स-उनकी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई के माप की सटीक कल्पना साथ ही कपड़े वगैरह सामान, बिल्कुल सूतली के टुकड़े से लेकर कांब कैसे बनाना है इसका व्यवस्थित ज्ञान आप्पा को था. “रंगमंच के सर्वांगीण तंत्र और मंत्र की जानकारी रखने वाले लोग इस व्यवसाय में आप्पा के अलावा बहुत कम होंगे” – इति कोल्हटकर. आप्पा खुद पेंटिंग नहीं करते थे. लेकिन पर्दे पर का दृश्य कैसा दिखना चाहिए यह वे पेंटर को उसकी भाषा में समझा देते थे. दृश्य के मामले में मराठी रंगमंच पर पहले आप्पा ने सुधार किया, वास्तविकता लाई ऐसा कहना पड़ेगा. पर्वती, शनिवारवाड़ा. उसमें गणेश महल, ओंकारेश्वर ऐसे आप्पा की कलापूर्णता की गवाही देने वाले कितने ही दृश्य महाराष्ट्र मंडली के नाटकों में दर्शकों ने देखे होंगे. किर्लोस्कर के ‘मानापमान’ में तंबू का निर्माण आप्पा ने ही करके दिया. वही तंबू का सांचा अभी भी प्रचलित है.”जो बात दृश्यों की है, वही बात वेशभूषा की भी है. मराठाशाही की सुरवारी, अंगरखे आप्पा खुद पेशेवर दर्जी को भी काटकर देते थे. ब्राह्मणी, राजपूती, मराठाशाही, पेशवाशाही ऐसे अंगरखों के फर्क पहले आप्पा ने भाईबंदकी के लिए तैयार किए. उसी तरह मराठाशाही और पेशवाई के अलंकार, ऐतिहासिक वर्णन के अनुसार उन्होंने ही पहले तैयार करवाए. नाना फडणवीस की पगड़ी और शिवाजी का जिरेटोप आप्पा की शोधक बुद्धि ने रंगमंच को दिए हुए शिरोभूषण हैं.”
“मेकअप करने के लिए पहले सफेदा, हिंगूल, पिवड़ी आदि साधारण रंग पानी में घोलकर इस्तेमाल करते थे. ग्रीजपेंट लगाने की पाश्चात्य रंगमंच की प्रथा जानने के बाद आप्पा ने वैसलीन में रंग तैयार करना शुरू किया. नट के चेहरे पर लगाने वाले रंग के पहले संशोधक आप्पा टिपणीस और भागवत ही थे. आगे सभी नाटक मंडलियों में इसी रंग का इस्तेमाल होने लगा.”
केशवराव भोसले की ललितकलादर्श, गोविंदराव टेबे की शिवराज मंडली और बालगंधर्व की गंधर्व नाटक मंडली. इन तीनों नाटक मंडलियों से आप्पा का संबंध नाटककार के रूप में आया, लेकिन नेपथ्यकार आप्पा का फायदा ललितकलादर्श और शिवराज मंडली ने ही उठाया! मराठी रंगमंच का एक जानकार नेपथ्यकार ही लेखक है. यह इन दोनों नाटकों के नेपथ्य और वेशभूषा की यथार्थता से स्पष्ट होना था!!! गंधर्वकालीन नेपथ्य का यहां तक मोटे तौर पर और थोड़ी बहुत स्वच्छंदता से विचार करने के बाद गंधर्वकाल को प्रसिद्ध करने वाली गंधर्व कंपनी के संदर्भ में कुछ प्रश्न, कुछ शंकाएं मन में आती हैं. गंधर्व कंपनी के संगीत नाटकों की सफलता में रंगमंच पर नेपथ्य का कितना योगदान था? गंधर्व कंपनी के नाटकों में नेपथ्य और वेशभूषा नेपथ्यशास्त्र के अनुसार कितनी उपयुक्त, सापेक्ष और नाट्यधर्मी थी? नए नाटक के साथ कंपनी के नेपथ्य में कल्पनाशीलता, प्रगतिशीलता, योजना आदि विशेषताएं मिलती थीं क्या? गंधर्व काल में ही कुछ नामी नाटक मंडलियां नेपथ्य की नवीनता, प्रगति के प्रति रुचि दिखाती थीं, और उसे वास्तव में साकार करने का प्रयास करती थीं. इसके लिए आवश्यक खर्च भी करती थीं. इन प्रयासों का गंधर्व कंपनी ने कितना संज्ञान लिया? और वैसा प्रयास करने का कितना प्रयास किया? आदि आदि आदि. इन प्रश्नों के उत्तर खोजने के लिए विस्तृत शोध की आवश्यकता है.