
गीत की आत्मा
शरच्चन्द्र विष्णू गोखले
ध्रुपद कहाँ समाप्त हुआ और ख्याल कहाँ शुरू हुआ, ख्याल-टप्पा, टप्पा-ठुमरी, ख्याल-ठुमरी, ठुमरी-ग़ज़ल में क्या अंतर है, उसे कैसे पहचाना जाए, इन उलझनों में बालगंधर्व नहीं पड़े।
उन्हें एक बात मालूम थी, अमुक रस चाहिए, ‘चाल’ यानी स्वर और लय की मोड़नी ऐसी-ऐसी है, तल्लीन होकर गाना है, अर्थ समझकर गाना है, जो होगा वह अपने आप हो जाएगा। वे दीवारें बनाने वाले मिस्त्री अपना-अपना काम देख लेंगे। और यही सच है। यही संगीत, यही कला। रंजक-रसपरिपोषक नहीं तो संगीत कहाँ, और संगीत ही नहीं तो उसका शास्त्र कहाँ से लाया? बालगंधर्व के गायन में ‘ख’ और ‘ध’ शुद्ध निर्भेळ अकार के नहीं हैं, मुँह थोड़ा और खुला है। पर कितना? अकार का निर्भेळ रूप जाना चाहिए इतना ही; ‘खार्च’ और ‘धार्म’ नहीं किया। उनमें रेफ भी बोबड़े नहीं हैं, स्पष्ट ही हैं – फिर भी उनका ‘र्र’ होने नहीं दिया। ‘ऋ’ वही ‘ऋ’ है, ‘री’ या ‘रू’ नहीं। ‘कृष्ण’ यह शब्द उन्हें एक ही नाटक में लाख बार कहना-गाना पड़ा है- ‘मम मनी कृष्णसखा रमला’, ‘व्यर्थ मधुपसे कृष्णाला’ कितने गद्य-पद्य उदाहरण दें? – और हर कृष्ण अलग-अलग संदर्भ में अलग-अलग स्वरों, उच्चारों के साथ आगे-पीछे होकर सामने आया है; फिर भी उनका कृष्ण वही पोटफोड़ कृष्ण है। वह क्रिस्न, कुश्ण जैसा शेंडीवाला वेडाबोंगाडा कभी नहीं हुआ। उनके उच्चार में गुळमुळीतपन भी नहीं है, आघातवर्णों और कठोर वर्णों का स्थान व महत्व उन्हें मालूम है। वह आघात डग्गा घुमाने जैसा है, पर ‘न्नयने ल्लाज्जवित’, ‘राध्धाबाला’, ‘यदुमन्नी सद्दना’, ‘मधुक्कर व्वन्नव्वन्न’ जैसी मारामारी नहीं मिलेगी; फिर भी ‘धा’, ‘धीन्’ को जवाबी बोल उच्चारे हैं। यह लाजबाब है। ‘दहती’ का ‘ह’, ‘द’ के बाद आने के कारण पूरा गले से महाप्राणयुक्त; तो उसके बाद ‘बहु’ का ‘ह’ ‘ब’ के बाद होने के कारण उसका उगम मुँह के अंदर तालू की तरफ, उसमें महाप्राण कमी! दोनों हकार घोषयुक्त ही, पर उनमें भी फर्क। फिर भी पहले पर धक्का नहीं, दूसरा बोबड़ा उकार नहीं। ऐसा और किसने किया
लय आणि स्वर
वर्णोच्चार, उनके परस्पर हस्व-दीर्घत्व और परस्पर ध्वनिबल से लय दिखती है। लय अनुभव से ही समझ आती है, प्रवचन से नहीं। गंधर्व खुद लय ही बन गए थे। गीत हो, या ‘दादा, ते आले ना’, ‘खड्ग मागे घ्या, दादा, खड्ग मागे घ्या! – खड्गङ्ग मागे घ्यायचे होते’ ‘आनंदाची गुढी घेऊन दुडदुड धांवत समोर नको का जायला?’, ‘बाबा, कच माझे भाऊ ठरतील!’ ‘मी दासी नाही’, ऐसे नाटकी वाक्य हों, या जिसमें भीतर का – बिल्कुल भीतर का असली मनुष्य बाहर आएगा वाला, ताप-संताप-वैताग का “तू नको ग मधेमधे बोलू! देवा, नका देऊ लक्ष तिच्याकडे,’ ‘अरेरे, तूं मुझे नही गाली देता- अपने वालीदसाहबको – मुल्लाजीको देता है!’ ऐसा व्यवहारकठोर स्फोट हो। लय उसी में से माप लेनी है; राईभर इधर-उधर नहीं होगी। नाटक वह नाटक, पर हर समय लयबद्ध वाणी यह अलग ही। एकाध ही शिवरामपंत, लक्ष्मणशास्त्री लेले, बाळशास्त्री हरदास, सावरकर, शिवाजीराव भोसले वे जाने। इन सबमें से ‘स्वर’ को अलग निकालना असंभव है। स्वर वही उच्चार है! वह कभी व्यंजनयुक्त होगा, कभी अलग-अलग ध्वनिबल से उभरेगा, उसका हस्व-दीर्घत्व अलग होगा, पर वह स्वर ही है। वही लयसिद्धि करता है। यह परस्परभावी है, परस्परसाहाय्यक या परस्परपूरक नहीं; यह अखंड अभेद्यरूप है। यह गद्य में भी दिखता है। ‘नाना स्वर’ उभरते हैं वह स्वरनाद के अधिक प्रमाण में उच्च-नीच होने से। इससे साधा संभाषण, नाटकी भाषण, कविता, गीतगान ऐसे चढ़ते क्रम के प्रकार बनते। “स्वस्थ कसा तू ऊठ गड्या, झणिं टाक उड्या” यह गद्य भी है और गान भी। पर मूलकारण, मूलहेतू, मूलप्रयोजन एक ही अबाधित है। लय छूटी तो स्वर गया, संगीत का प्राण गया। उलट स्वर नहीं तो लय गई। बचा तो ‘गधापधा।’ वह संगीत नहीं!
तान उनकी थी
‘गधापधा’ की गंधर्वों को जरूरत ही नहीं थी। ‘नाथ हा माझा’ यह पद देखो। आजकल यह समझ है कि, ‘ना’ पर एक लंबी तान है वह ‘बरोबर’ (मतलब क्या?) ली, ‘हा SSSSSS ऐसे छह बार हेलकावे लिए, और ‘मा’ को नीचे व ‘झा’ को ऊपर ले जाकर छोटी सी मींड से ‘म्मो’ पर आघात किया, तो गंधर्वों की अस्ताई का तोड़ मिल गया। यह हाथी और अंधों की कहानी जैसा है। गलेबाजी-तानबाजी पर पुराने उस्ताद शिष्य से गुस्से में कहते, “अरे जब बुढापा आयेगा, गला रुक जायेगा, तब क्या करोगे?” मुख्य क्या, गौण क्या यह महत्वपूर्ण है। जरूर, गंधर्वों ने खुद सालोंसाल यह तानों का प्रकार किया। पर वे कलाकार थे, कसबी नहीं। आवाज़ गई तो भी वे यही पद गाते और उसमें भी पहले जैसी ही मिठास पैदा करते। वह तान आएगी कहाँ से इसकी उन्हें फिक्र नहीं थी; क्योंकि वह तान उनकी थी, वे उस तान के नहीं थे। उन्होंने मुखड़ा ही बदल दिया; “ना S, थ्हा S, माझा मो S’ ऐसा प्रकार किया।”””” (‘नाथ’ का ‘थ’ भाषा में अति-हस्व होने के कारण गीत में अतिह्रस्व क्षम्य है।) तान छोड़कर ही दी गई, और फिर भी मिठास अलग पर स्थिर रही! मींड, घसीट, पुकार, खटका, कण, बेहलावा ये सभी अंत तक साथ देते; नाना ताना, कंप, मुरक्या, हरकती ये चार दिन की मित्र, इन्हें ये पूरी तरह से मालूम था। ‘पीळदार’ गाना क्या होता है, इसका अंदाज़ा इसमें है; गंधर्वों का गाना पीळदार था और पीळदार ही रहा। पर जब तक उनका गला काम देता था, तब तक यह पीळदारपन छिपा हुआ था, क्योंकि उन्होंने उस समय के गुणों को यथेष्ट स्थान दिया। मुरक्या और हरकती उनके गले में जन्म से ही बोई गई थीं, यह क्या, इतनी आसानी से वे निकलती थीं। वे निकलती थीं, वे नहीं निकालते थे। तीन-चार सुरों की मुरकी तुरंत आ जाती, और आई कब, गई कब, पता ही नहीं चलता। दुतलय में उसी का कंप अपने आप होता। पर दुःख-ताप व्यक्त करने के लिए एक ही सुर पर ठहरकर उसी को कंपित करने के सस्ते तरीके (चीप ट्रिक्स) उन्होंने जीवनभर नहीं अपनाए। अर्थभाव गीत ने ही व्यक्त किया। हुंदके, आक्रोश, चीख, गर्जन, घूमना जैसे संगीत से बाहर के ‘इलाज’ नहीं किए। ज़रूरत ही क्या थी? गला ऐसा घूमे कि यह ‘गली’ आवाज़ लगे, पर आवाज़ दमदार ही था, नाभि से निकला हुआ था। ताना हज़ार प्रकार की हैं और बुज़ुर्गों ने उन्हें अलग-अलग नाम भी दिए हैं। उनमें से गीत के लिए उचित जितनी ही ताना गंधर्वों ने चलाईं।
सब मिलाकर एक
अस्ताई-अंतरा हो या तानों का विस्तार-विलास हो, उसके अलग ‘भाग’ ऐसे दिखाई नहीं देते थे; सब मिलाकर एक गीत और एक ही गीत ऐसा। बीच में रुके तो भी ‘यह विश्रांति’ ऐसा भास नहीं होता। एक तान-टुकड़ा जिस स्वर पर समाप्त होगा, उसी स्वर से, या उससे डेढ़ या दो स्वर नीचे या ऊपर के नाद से, दूसरा टुकड़ा शुरू होता। तीन चार पाँच स्वरों के अंतर से उठान वाले स्वर वाले टुकड़े पंक्ति में कभी नहीं आते। जो लय एक बार निश्चित की, वह कम-ज़्यादा नहीं होती थी – अधिकतर मध्यलय ही होती। इससे एक ही धारा, नाद-प्रवाह चल रहा है ऐसा भास होता, और वह सच्चा ही होता। ताना सपाट – सीधी चल रही हैं ऐसा भास होता, पर उनका परीक्षण करने पर पता चलता है कि अधिकतर ताना पेंचदार हैं, इतना ही नहीं बल्कि सुर-सुर को ‘एक-एक-एक’ ऐसी लय-मोजनी में वे नहीं बैठतीं, आधे से षष्ठांश-अष्टमांश मात्रा तक क़ानून काटती तान चलती है। जो सीधा लगे वह वास्तव में कठिन है। इन सब में उन्होंने जो रसभावना दिखाई वह शास्त्रीय ही थी। उनका शृंगार उत्तान नहीं था, सजा हुआ था। वीर धीर था, करुणा-वात्सल्य तो ओत-प्रोत था, भक्तिरस में इन सबका गीतानुसार मिश्रण था। रौद्र
बीभत्स – भयानक रस उनके वाऱ्य में नहीं थे। (वीररस पर आक्षेप आएगा, उसका उत्तर ‘अनृतचि गोपाला’, ‘मज भय न, असा भरला वारा’, ‘त्यजि न लव धीरा’, ‘मम सुखाची ठेव’ आदि पद आपस में देंगे।) इतना सब होने पर राग-ताल कहाँ जाएँगे? राग की पीनलकोडी परिभाषा करने वाले ख़ुशी से उसके कलम-उपकलम लागू करें, अपराध नामंज़ूर और आरोपी निर्दोष है, क्योंकि भाव (‘स्पिरिट’) ही और केवल यही कला में प्रमाण है। क़ानून का अक्षर (‘लेटर ऑफ द लॉ’) नहीं। इसके अलावा यह ‘लॉ’ बनाने वाला कौन है, यह भी उलटा आक्षेप है। ‘भीमपलासा’ ने हमें अमुक ‘बताना’ चाहिए, वह इनका भीमपलास सटीक, अमोघ और पूर्ण रूप से बताता है, ‘काफ़ी या बागेश्री जो बताए’ वह नहीं बताता, यदि यह सत्य है तो कभी कहीं ‘सागमप’ के बदले ‘सारेगमप’ हो जाए तो कुछ बिगड़ता नहीं, वह भीमपलास ही है, काफ़ी नहीं। यही रागदृष्टि है। रागगायक लेखक हैं, टाइपिस्ट नहीं, रागाकृति चित्र है; भूमिति की आकृतियों से बने हुए निर्धारित ‘रिपिटिटिव’ डिज़ाइन नहीं, पर गंधर्व इस सिद्धांत का सुविधाजनक आधार बताकर मनमानी नहीं करते थे। ‘अब वर्ज्यस्वर लगाते हैं’ ऐसी बुद्धिमत्ता उन्होंने कभी नहीं की। वह नाटक हो जाता और गंधर्व नाटक जीते थे, करते नहीं थे। तल्लीनता ही उनका धर्म था, और तल्लीनता ने ही उन्हें मृत्यु तक संभाला। उनका लय में ही लय हो गया।
उन्हें रागमिश्रण पसंद नहीं थे। ‘अजि टाकु गडे धनवेषा’ और ‘अवतार जीव घेत असे’ ये दो ही मिश्रराग उन्होंने गाए। जिसमें स्वरस्वातंत्र्य अधिक हो, वह ‘मांड’ नाम का राजस्थानी गायनप्रकार, या झिले (जिल्हे) यानी देशीराग, ‘धुनउगम’ (?) राग – जैसे खमाज-पीलु-जंगला, ये उन्हें खेलने में अच्छे लगते थे। संकीर्ण राग, जैसे श्रीप्रकार, पूर्याप्रकार, भैरव, तोड़ी आदि भी उन्हें प्रिय नहीं थे। ‘होय संसारतरु’ यह भैरव का उत्कृष्ट पद बदलकर उन्होंने बागेश्री में लिया। शाकुंतल-शापसंभ्रम के बारे में भी ऐसा ही किया। एक सप्ताह तक मास्टरों को लेकर बैठे और सभी लावणी-टप्पे, सभी संकीर्णराग हटाकर नई चालें बना लीं। इसका अपवाद केवल जोगिया-आसावरी और कालंगडा। छायालग राग, यानी समान लगने वाले पर अलग-अलग प्रकृतिभाव वाले राग, उन्हें पसंद थे।”””जिन्हें अवघड़ (अनूठ) या अप्रसिद्ध (अछूत) राग कहा जाता है, वे भी उन्होंने गाए। एक ही प्याले में उनके पास हंसकिंकिणी है, आशा-निराशा में सावनी काफी है, द्रौपदी में खोखर (बिहागड़ा प्रकार) है। लेकिन ‘कशि मी प्रभो निंदू तुला’, ‘मम भाललिखिती विलापकथा’, ‘हा हिणवाल जरी फार’ ये पद थिएटर को समर्पित नहीं किए गए। तल्लीनता से ही उन्होंने ताल बजाया। ‘करीन यदुमनी सदना’ यह पद मूलतः पंजाबी ठेके के बोल पर आधारित है, उसे गाना बेहद मुश्किल काम है। उन्हें वह ठेका क्या, रूपक क्या, धमार क्या, दीपचंदी क्या, किसी की कोई चिंता नहीं थी; वजन तोल लो। क्योंकि ‘वजन’ ही पहले से तौला हुआ था। फिर रोक किस बात की? सोलह, सात, चौदह मात्राएँ अपने-अपने जोर-भार के वजन से ही पूरी होने वाली थीं!
सरल काम नहीं
इस ‘वजन’ के वजन से ही उन्होंने अभंग बजाए। भजनी बाज महामुश्किल है, हर पल कायदा बदलता रहता है। गंधर्व ने उसे काटा, इतना ही नहीं बल्कि उसमें स्वरोच्चारों की ऐसी बोलबाँट डाली कि वह छँट जाए, शह दे। कितना सहज! ‘कान्होबा, तुझी घोंगडी’ हो, ‘दत्ता दिगंबरा याहो’ हो, ‘अवघाचि संसार’ हो, ‘जोहार मायबाप’ हो, ‘शरण शरण नारायणा’ हो, या ‘तुझिये निढळी’ हो; सुनने वाले को लगेगा कि इसमें है क्या? पखावजी की करामात! ये तो बस शब्द ही रह गए हैं! लेकिन उन्हें ‘लय-ताल’ में यानी उसी अंग से कटते-कटते उसी बाज में गाना, यह आसानी से समझ में नहीं आता। क्योंकि पांडोबा बोंद्रे पसीने-पसीने हो गए, लेकिन ये नाम के अलग। गीत के अर्थ में डूबे हुए। ‘माय्बा $SS$ प् जोहा $S$र मा $SS$ य्बाप्’ इसमें कितने कम स्वर हैं! सिर्फ तीन ही कड़े! लेकिन किस मात्रा पर कितने अंश से उठाना है, कहाँ आवाज को कितनी मात्रा तक लंबाना है, और किस मात्रा के किस भाग को ‘बाप दिखाना है’, किसे कितना श्रुति-स्वर का स्पर्श देना है, यह कोई सरल काम नहीं। कंपनी में तिरखवाँ आने पर उसे मौका मिले इसलिए उन्होंने ‘दलन’ शुरू किया, यह सच है। ऐसा नाटक में नहीं करना चाहिए, यह भी सच है। लेकिन वह दलन इतनी काट-छाँट वाला था। कोई साधारण तबलची होता तो भाग जाता। दलन हुआ तो तबले की रीति से। एक लग्गी शुरू की तो उसकी गति फुप्पी होनी चाहिए, एक रेला शुरू किया तो उसके सारे पलटे हो जाने चाहिए, एक कहरवे के एक कायदे के बोल बिना बदले भी चौबीस पलटे होते हैं – एक दादरा चतुर अंग से ले जाने लगो तो 24वाँ, 48वाँ, 72… मात्रा हुए बिना छुटकारा नहीं। यह रीति का तबला है। दूसरे कुछ भी करते।

बेजरूर तिहाई, यानी एक ही स्वर-वाक्य बेकार में तीन बार कहना, ऐसे प्रकार उनके लिए वर्जित थे। लेकिन किसी भी मात्रा-भाग से मुखड़ा लेकर गति, परणे, नौहक्के तक वे सहज ले लेते। यही ताल-ज्ञान है। धड़ाडधूम मतलब ताल-ज्ञानता, लयदारपन नहीं।
कायापलट
इन सब में स्वाभाविक बुद्धि कितनी और सुनार का गुण कितना, यह कहना मुश्किल है। इतना सच है कि तर्क, विश्लेषण, गणित, शास्त्र-अध्ययन ये गंधर्व के पास नहीं थे। घंटों खनपटी में बैठे रहने के बाद भी खुद ने क्या किया, इसका हिसाब वे नहीं बता पाते, क्योंकि वे हिसाबी नहीं थे। स्वतंत्र रचना-बुद्धि नहीं थी। मानापमान – पहले के, यानी 19.11 से पहले के, उनके रिकॉर्ड्स हैं, उनमें ‘नका टाकून जाऊं’ यह लावणी छोड़ दें तो बाकी में सिर्फ तानें हैं, गीत के अर्थ की जानकारी नहीं। “पुष्पपरा, आ $S$S-ग $S$S, सुगं, अं $S$S – धित $S$S” ऐसे प्रकार हैं। ये दोष रिकॉर्डिंग के नहीं हैं। ‘मानापमान’ के बारे में कहा जाता है कि उसमें उनकी चालें टेबले ने जिन-जिन रिकॉर्ड्स से लीं, वे रिकॉर्ड्स सुनकर उन्होंने आत्मसात कीं और भास्करबुवा ने उनकी फोड़, उनका विस्तार बताया। आगे ‘विद्याहरणा’ में ‘गंधर्व-गायन’ साफ दिखता है, उनका कायापलट ही जैसे। ‘एकच प्याल्या’ के पुराने बाज में सुंदराबाई साफ दिखती हैं। और ‘द्रौपदी’ के बाद मास्टर, इसमें शक नहीं। अब मास्टर-सुंदराबाई-भास्करबुवा-गौहरजान में क्या अधिक था जो गंधर्व में नहीं था, और अगर वह अधिक था तो ये लोग गंधर्व से पहले उनका पटकाव क्यों नहीं बैठे; या उलट गंधर्व में क्या था जो इनमें से किसी में नहीं था, इनकी उच्च खोज हो सकती है, लेकिन वह स्वतंत्र लंबा विषय होगा। शुरुआत में मानापमान तक; मानापमान से द्रौपदी तक; बीच में एकच प्याला; फिर मूकनायक-नई चाल का शाकुंतल-शापसंभ्रम: नं नंदकुमार से अमृतसिद्धि-सावित्री तक; आगे कान्ह पात्रा; फिर धर्मात्मा और उसके बाद भक्ति-गीत अभंग-गायन – इस तरह गंधर्व के गायन-काल को भागों में बाँटा जा सकता है और उनमें कुछ-कुछ अलगापन महसूस होगा। लेकिन सबमें समान कुछ गुण यहाँ दावे जाते हैं, वे ऐसे हैं कि लोगों पर छाप और रामूभैया पर प्रेम का हक गंधर्व अंत तक रख पाए, इसके मुख्य कारण क्या हैं, यह थोड़ा दिखे। “(तंत्रीकृत), रसात्मक, वर्णालंकार भूषित,””””गांधर्व को तीन प्रकार का माना जाता है – स्वर, ताल और पद। यह नाट्यशास्त्र में ‘गांधर्व’ शब्द की व्याख्या है। यह गांधर्व, रामूभैया को पसंद था गंधर्वगान।
दोष
यह गायक सर्वगुण संपन्न, दोषरहित था, यह कहना मात्र पागलपन होगा। उसमें कुछ दोष विला रजोगुण के थे। तबले की जोड़ी में स्वरों को खेलवाने के कारण शुरू हुई यह शैली बढ़ती गई, ‘संशय कां मनि आला’, ‘नरवर कृष्णासमान’, ‘कशि त्यजूं पदाला’, ‘हा विराटा ज्ञानी’ इनमें इसका चरमोत्कर्ष था। उसमें ही आगे बढ़ती उम्र की कमजोरी और कवळी के कारण ‘र’ अक्षर अस्पष्ट हो गया, बाबड़ापन आ गया, शुद्ध महाप्राण कम होकर ‘ह’ का ‘घ’ हो गया। परंतु समग्र गुणों में ऐसे दोष कम ही थे। (‘विश्रब्ध शारदा’ खंड २, ऊपर से)”