
कला का बचपन
शरच्चन्द्र विष्णू गोखले
बालगंधर्व मराठी नाट्य जगत के एक चंचल मन थे। ऐसा वर्णन करते समय थोड़ी मस्ती महसूस होती है। क्योंकि उनका कलात्मक मन अत्यंत स्थिर था। संगीत क्या है, इस विषय में उनकी धारणा पक्की थी। अपने भाव को कैसे प्रस्तुत करना है, इस पर वे निःसंकोच रहते थे। भजन की बैठक हो, नाट्य संगीत का गायन हो, ध्वनि मुद्रण का समय हो या सामने बैठे जिज्ञासु को बिना साथ के गुनगुनाकर दिखाने का क्षण हो, गायन में क्षणिकता का लेश नहीं होता था। आवाज़ का लगाव, चुनी हुई लय, चयनित पद, बंदिश या अभंग आदि रचनाओं के मामले में ठीक समय पर बदलाव करने से भी बालगंधर्व नहीं घबराते थे। क्योंकि भाव दृढ़ होता था।
स्थिर नज़र
बालगंधर्व के गायन में पुनरावृत्ति का कारण और मल्लिकार्जुन मंसूर आदि कलाकारों द्वारा स्थायी को बार-बार दोहराने का रहस्य एक ही है: अपने भाव पर बार-बार ध्यान केंद्रित करना। गायन में आलाप, तान, तिय्ये, बोलतान, तबला वादक के साथ तालमेल, सारंगी-हार्मोनियम वादकों के साथ आदान-प्रदान और श्रोताओं से संवाद जैसी चीज़ें लगातार घटित होती रहती हैं। गीत आगे बढ़ता रहता है। लेकिन इसे बीच-बीच में, उचित स्थानों पर रोका न गया तो हाथ से फिसल जाता है। कलाकार की महानता गीत को रोकने में दिखती है। मानो मन का संतुलन बार-बार पाना हो। बालगंधर्व को यह कला आती थी। इसलिए उनका भाव स्थिर रहता था। संगीत की प्रतिष्ठा मजबूती से बनी रहती थी। तूफान के बीच की स्थिर आँख या टी.एस. इलियट के शब्दों में ‘घूमते संसार का अचल बिंदु’—उनका गायन ऐसा प्रतीत होता था।
गीत की लय का प्रवाह
बालगंधर्व की कला को ‘गायन’ न कहकर ‘गीत’ कहना उसमें जानबूझकरपन का पुट कम कर देता है। ‘गायन’ शब्द ‘गै (गायति)’ से आया होगा, लेकिन इसकी नाभिनाल ‘गम् यानी जाना’ से जुड़ी है। लगातार बहते रहना, प्रवाहित होते रहना ही गीत है। गायन करना पड़ता है। गीत ऐसा नहीं होता। बालगंधर्व के गीत का प्रवाह किसी के भी ध्यान में आएगा। प्रवाह के तत्व क्या हैं? तो, बहुत विलंबित न होने वाली और द्रुत लय से जुड़ी ताल। उस समय के गीतों के उदाहरण 78 RPM की घूमती हुई रिकॉर्डिंग्स पर और भी तेज़ लगते हैं। यह सच है, लेकिन बालगंधर्व का वास्तविक गायन सुनते समय भी ‘लय में मैं मध्यलय’ की अनुभूति होती थी। करीब चालीस वर्ष पहले तक ग्वालियर, आगरा घराने के गायकों की लय मध्यम होती थी। मध्यम लय से समग्र प्रयासों का ढाँचा तय हो जाने के बाद शब्द, स्वर आदि से बनने वाले संगीतमय खंडों के बीच की दूरी स्वाभाविक रूप से कम रह जाती है। समग्र गीत अधिक सुसंगत हो जाता है। भारतीय संगीत के संदर्भ में एक विशेष गुण ध्यान खींचता है। इसे कहते हैं ‘ध्वनि की सातत्यता’। गीत का सूत्र टूटना नहीं चाहिए। नारदीय शिक्षा में स्वरों को एक-दूसरे के पीछे कैसे आना चाहिए, इसका सुंदर वर्णन है। नारद कहते हैं, धूप से चिपककर छाया आए! बालगंधर्व की गानलय से प्रवाह ऐसे ही बना रहता था। लेकिन सिर्फ इतने से प्रवाह नहीं बनता। एक-एक स्वर को लंबा खींच देने से कुछ प्रवाह की अनुभूति नहीं होती। इसलिए बालगंधर्व सागर की लहरों से खेलती हुई चंचल स्त्री की तरह एक झटके में चार-चार, पाँच-पाँच स्वर सहजता से ले लेते थे। उन्हें अकेला स्वर गाना नहीं आता था। एक स्वर को थामने वाली नूरजहाँ नहीं, बल्कि स्वरों की माला गूँथने वाली भामिनी उनके करीब थी। गति और भरपूरपन—इन दोनों के कारण उनके गीतों में प्रवाह महसूस होता था।
आवाज़ का रहस्य
एक के बाद एक और एक समय पर एक स्वर लेना, यानी स्वरसंहति के सिद्धांत को बनाए रखना। एशियाई संगीत पद्धति में यह सिद्धांत मिलता है और परिणामस्वरूप ‘एक झटके में पाँच स्वर’ का प्रभाव पाने का प्रयास कई लोग, कई देशों में करते हैं। सभी को सफलता नहीं मिलती, क्योंकि आवाज़ का स्वभाव अनुकूल नहीं होता। इसके अलावा, आवाज़ को कैसे लगाया जाता है, यह भी बहुत कुछ निर्भर करता है। बालगंधर्व की आवाज़ बहुत पतली नहीं थी, लेकिन लगाव नाज़ुक था। पट्टी ऊँची थी, लेकिन वहाँ भी मध्यम मार्ग ही था। आवाज़ हल्की थी और खास बात यह कि सहज होते हुए भी उसमें अस्थिरता नहीं थी। आवाज़ के लगाव में कभी-कभी ऐसा होता है कि स्वर पर स्थिर होने की कोशिश करते ही वह भारी हो जाता है, अटक जाता है। वहाँ से दूसरे स्वर पर जाने के लिए पचास साल के बाद घुटनों पर हाथ रखकर उठने जैसा प्रयास करना पड़ता है। इस कठिनाई से बचने के लिए कुछ लोग स्वर को ही अधूरा छोड़ देते हैं, जैसे बिना सूँघे खाँसी आ जाए! लेकिन यह गौण मार्ग है। जिन्हें लगाव में सटीक जोर लगाने का रहस्य पता चल जाता है, वे स्वरभूमि पर पैर जमाकर भी चंचल गति बनाए रख पाते हैं। बालगंधर्व की आवाज़ के हलकेपन का रहस्य लगाव में था।
‘शारीर’ संज्ञा
नाटक में संवाद कैसे बोलने चाहिए, यह बताते हुए हेमलेट कहता है—’Say it trippingly on the tongue’। गायन में आवाज़ के लगाव का भी कुछ ऐसा ही है। कुछ को यह जादू आसानी से आ जाता है, कुछ को इसे सीखना पड़ता है। मध्ययुगीन संगीत शास्त्रियों ने आवाज़ पर बारीकी से विचार किया था। आवाज़, उसका लगाव,लगाव और उसके परिणामों की जागरूक नोट रत्नाकर आदि ग्रंथों में मिलती है। उन्होंने एक विशेष धर्म का उल्लेख किया है। ‘शारीर’। शरीर के साथ आने वाला, इसलिए शारीर। इसका लक्षण बताते हुए कहा गया है ‘राग की सहज सिद्धि करने वाला’। प्रयोगकला के आविष्कारों में से कई भाग प्रत्यक्ष क्रिया से सिद्ध होते हैं। क्रिया शारीर-मानस होती है, लेकिन बाहर से क्रिया पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता। अभिनेता की मुद्राभिनय या दृष्टिक्षेप, नर्तक के हावभाव और हाथ के इशारे, वादक का वाद्य को स्पर्श या आघात और गायक की आवाज का लगाव आदि में कुछ ऐसा तत्व होता है जिससे मानो शरीर को कल्पनाएँ सूझती हैं या स्वप्न आते हैं! साहित्यिकों की प्रतिभा जैसी कामगिरी करने वाली यह प्रयोगशक्ति क्या ‘शारीर’ संज्ञा से सूचित नहीं होती? बालगंधर्व, बड़े गुलाम अली, लता मंगेशकर, बापूराव पलुस्कर आदि महान व्यक्तियों की आवाजों में होने वाले चमत्कारों का स्पष्टीकरण कैसे दिया जाए? खैर।
विभिन्न प्रकार का सुरीलापन
इसी क्रम में बालगंधर्व के सुरीलापन के बारे में कुछ। आवाजों के सुरीलापन में फर्क कैसे किया जाए? ऊपरी तौर पर देखने पर लगता है कि व्यक्ति सुरीला है या नहीं। विशिष्ट आविष्कार में स्वरों के जो स्थान सयुक्तिक होते हैं, वहाँ सहजता से, जरूरत के अनुसार और श्रवणीयता बनाए रखते हुए ठहरना ही सुरीला होना है। इतना सबका सुरीलापन एक जैसा कहा जा सकता है। लेकिन अब आगे भावस्थिति का प्रांत शुरू होता है। इस संदर्भ में हर कोई अलग हो सकता है, कम से कम ऐसा होना चाहिए। आवाजदार व्यक्तियों की आवाज की नकल करने वाले साधकों को यहाँ दिक्कत होती है। आवाज की पट्टी, गरिमा, आरंभ और विलय आदि में ‘प्रति’ अमुक-अमुक बनना संभव हो सकता है, लेकिन संबंधित भावस्थिति का क्या? उदाहरण के लिए: लताजी की आवाज के सुरीलापन को उच्च पट्टी, सहजता आदि के साथ कैसे लाया जा सकता है? उस्ताद अब्दुल करीम खाँ का सुरीलापन करुणा से भरी धुंध का होता है, तो बड़े गुलाम अली के सुरीलापन में मादकता का पुट होता है। हिराबाई या माणिकबाई का सुरीलापन निरागस, मास्टर कृष्णराव का प्रसन्न, मास्टर दीनानाथ का प्रखर तो बालगंधर्व का आर्तमाधुरी भक्ति से भरा होता है। समग्रतः भारतीय संगीत आवाज से ज्यादा आशय पर जीता है, ऐसी घोषणा को मानने के कारण शायद, लेकिन आवाज की ओर संगीत विचारकों का ध्यान नहीं गया है। (इसी कारण आवाज की जुगाली का शास्त्र भी अधूरा रह गया है।) आवाजों की उच्च-नीचता या छोटे-बड़ेपन से ज्यादा ध्वनि विशेषताओं पर सूक्ष्मध्वनि ग्राहकों के युग में जोर रहेगा, यह निर्विवाद है। कम से कम अब तो विशेषणों से विश्लेषण तक पहुँचने में हमें कोई हिचक नहीं होनी चाहिए! घाट और मार्ग, आवाज, उसका लगाव और कलाकार की समग्र भाववृत्ति ये बातें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इतने से काम नहीं चलता। गाने के आशय का क्या होगा, यह सवाल स्वतः उठ खड़ा होता है। बालगंधर्व के गाने का आशय गवई-गाने का नहीं था। बालगंधर्व श्रेष्ठ नटगायक थे। स्वाभाविक है कि उनके गाने को नियंत्रित करने वाला नाटक ही घाट था और अभिनय ही मार्ग। गवई के मामले में मैफिल घाट है तो राग-ताल आदि का विस्तार मार्ग है, जो समान कार्य करता है। दोनों संदर्भों में माँग, तकनीक, प्रस्तुति की शैली, आधारभूत संगीत प्रकार आदि सभी बातों का स्वरूप अलग होता है। संगीत और नाटक दोनों प्रयोगकलाएँ हैं। तो दोनों का उद्देश्य परिणाम साधना होता है, यह सही है। लेकिन अलग-अलग मार्गों से, उदाहरण के लिए केवल तैयारी या विद्वत्ता के द्वारा भी गवईयों ने मैफिलें जमाई हैं, लेकिन नटगायक को नाट्य परिणाम में कहीं संगीत से बाहर लेकिन नाट्य से जुड़े तत्वों की चौकट चलानी होती है। वास्तविकता, पात्र संवादित्व, नाट्यकथा रचना आदि का ध्यान रखना पड़ता है। इसमें फिर मराठी संगीत नाटक के रसायन को ध्यान में रखना होता है।
गवई का गायन और नाटकीय गाना
पाश्चात्य संगीतिका परंपरा, अमेरिकन संगीतिका परंपरा या लोकाविष्कार की नृत्य संगीत नाट्ययुक्त मांडणी से अलग होकर मराठी संगीत नाटक सिद्ध हुआ। व्यापक रंगभूमि को पीछे छोड़कर सीमित रंगमंच को स्वीकार करने के बाद मराठी नाट्यसंविद दो धाराओं में प्रकट हुई। गद्य नाटक और संगीत नाटक। बालगंधर्व का संगीत इसीलिए विशिष्ट प्रकार का रहा। थोड़ा गाएँ लेकिन प्रभावी गाएँ, गाते समय यह याद रहे कि यह एक पात्र है, कभी कथा तो कभी घटना की चौकट मन में रहे आदि बंधनों में खेलने वाला गाना ही नाटक-संगीत है। तो गवई-गाने का अंगरखा उसे कैसे फिट बैठे? गवई का गायन बंदिशों पर भाष्य या निरूपण होता है। बंदिश में निहित राग आदि की कल्पनाओं को गवई ने खोलकर, स्पष्ट करके प्रस्तुत करना होता है। गायन में विस्तार होता है। नाटकीय गाने में संगीत कल्पना का विधान होता है और नाट्य कल्पना का विस्तार होता है। नाट्य कल्पना पर भाष्य ही नाटकीय संगीत है।जब यह कहा जाता है कि भाष्य का विस्तार कौन करेगा, तो प्रयत्न मैफली की ओर नहीं झुकेगा तो और क्या होगा? इसीलिए बालगंधर्व बंदिश गाते समय भी वे उस पद के अनुरूप ही माप-तोल कर गाते थे। संगीत नाटक में बंदिस्त पद होते हैं, बंदिश नहीं। पदों के लिए प्रयुक्त नक्शे भले ही बंदिश के हों, पर एक के बदले दूसरे को झुकना नहीं चाहिए! ऐसा करने में सरसकटपन का बड़ा दोष सामने आता है। मराठी संगीत नाटक एक ओर वास्तववादी गद्य नाटक के तत्त्वज्ञान और दूसरी ओर नियमबद्ध व संकेतबद्ध शास्त्रीय संगीत के बीच के तनाव से अपना स्वरूप सिद्ध करता रहा। परिणामस्वरूप संगीतिका तो सिद्ध नहीं हुई, पर उससे उत्पन्न रसायन बिल्कुल खास मराठी था। फिर चाहे वह किसी को पसंद आए या न आए! मराठी संगीत नाटक मराठी समाज द्वारा ‘स्वेच्छा से लिए गए सांस्कृतिक निर्णय’ की अभिव्यक्ति है। इसीलिए बालगंधर्व के गायन का चेहरा-मोहरा महाराष्ट्रीय ही रहा। ‘कोरमेकी खुशबू’ वाली ख्याल गायकी भास्करबुवा ने, नख-शिख की या बंगाली ‘भद्र’ पसंद की ठुमरी गोविंदराव ने, निर्गुण-सगुण भजन मास्टर कृष्णराव ने या कुर्रेबाज ग़ज़ल सुंदराबाई ने बालगंधर्व के सामने बनारसी शाल की तरह खोल दिया, पर गंधर्वी गले की डूब मिलते ही उन्हें पद, बैठकी की लावणी या वारकरी अभंग का रूप मिल गया। हमारे भीतर घूमने वाला संगीत किसी भी संस्कृति द्वारा आसानी से नहीं बदला जाता। संस्कृति जब बदलती है, तो बदलने वाले अंगों में संगीत अंत में आता है। मुद्दा यह है कि आधुनिक महाराष्ट्र के बदलते मराठी समाज के विभिन्न स्तरों का संगीत अलग-अलग तरीकों से और विभिन्न मात्रा में बदल रहा था, क्योंकि हर सामाजिक स्तर अपनी गति और तरीके से बदल रहा था। नाटक प्रतिरूपात्मक कला है और संगीत तुलनात्मक रूप से अमूर्त। इसलिए नाटक की जाति और प्रकृति तथा संगीत की जाति और प्रकृति का एक ही तरीके से बदलना असंभव है, यह भी ध्यान में रखना चाहिए। संगीत नाटक के संदर्भ में देखें तो बाबाजीराव राने, पाटणकर और गंधर्व की तीन धाराएँ प्रमुख कही जा सकती हैं। बहुजन समाज, गिरणगावी जनसंख्या और पांढरपेशा समाज को उपरोक्त तीन धाराएँ क्रमशः अपनी लगी तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बालगंधर्व के संगीत नाटकों से अधिक उनके संगीत का प्रशंसक वर्ग बड़ा था। इसमें ही उनकी महानता है। स्थल और काल का प्रतिनिधित्व करते हुए भी चंद्रमंडल को भेदने की शक्ति कलाकार में होती है। हाल की गाथा, जयदेव की अष्टपदी, कबीर के भजन, सदारंग की ख्याल रचना और बालगंधर्व का गायन समान कारणों से टिकते हैं, अमर हो जाते हैं। यह कला उन्हें कैसे आती है? किन कारणों से बालगंधर्व संभव होते हैं? चर्चा में उठाया गया यह स्थान कठिन है, क्योंकि कौन सा स्वर संगीतत्व प्राप्त करता है और कौन सा संगीत अच्छा-बुरा क्यों होता है, इसके उत्तर संगीत विचारक दे सकते हैं। पर अच्छा-बुरा संगीत क्यों बनता है, इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए संस्कृति विचार को खड़ा करना पड़ता है। तब इस मोड़ पर बालगंधर्व का अनुसरण करते हुए कहना चाहिए, ‘देवा, आज इतना पुरे।’