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मेरे नाना

शरच्चन्द्र विष्णू गोखले

नाना। मेरे प्यारे पिताजी। पूरे महाराष्ट्र के लिए वे ‘नटसम्राट बालगंधर्व’ थे, लेकिन मेरे लिए वे नाना ही थे। नाना मेरे पिता हैं, इस गर्व के साथ ही मैंने जीवन जिया।

रंगमंच का यह सम्राट घर पर प्यारे पिता की भूमिका निभाता था। हम बच्चों से उन्हें बहुत प्यार था। कमला मेरी बड़ी बहन। मुझसे दो साल बड़ी। ताई शांत थी और मैं शरारती। एक दिन मैंने उसकी शरारत की। उसे मारा। ताई का रोना सुनकर नाना बाहर आए। बोले, “सरोजा, कमला तुम्हारी बड़ी बहन है। उसे क्यों मारा? उसके पैर पड़ो।” नाना का गुस्सा इतना ही था। उसके बाद मैंने फिर कभी ताई की शरारत नहीं की। जरीदार राजसी वस्त्र पहनकर, गहनों से सज-धजकर, इत्र की खुशबू बिखेरते हुए रंगमंच पर प्रवेश करने वाला यह सम्राट घर पर अत्यंत साधारण पायजामा और हाफशर्ट पहनता था। व्यक्तिगत जीवन में उन्होंने कभी इत्र का प्रयोग नहीं किया।

नजर उतारने का समय

उन्हें छोटे बच्चे बहुत पसंद थे। मेरा बड़ा बेटा चंद्रशेखर उनका लाडला था। जब मेरे पति विलायत गए, तब मैं चंदा के साथ मायके रहने आई। ‘अब रोज नाटक देखने को मिलेगा, गाना सीखने को मिलेगा’ इस विचार से मैं बहुत खुश थी। लेकिन मायके आते ही नाना ने मुझे हिदायत दी, ‘सरोजा, बाप्पा! मैं तुम्हें घर पर गाना सिखाऊंगा, लेकिन नाटक हफ्ते में एक बार ही देखने आना। चंदा की जरा भी उपेक्षा नहीं करनी।’ मैंने चुपचाप सिर हिलाया। तय कार्यक्रम के अनुसार हफ्ते में एक बार ही नाटक देखने जाती थी। शाम होते ही विंग से संदेश आता था, “घर जाओ। बच्चे की नजर उतारने का समय हो गया है।” ‘स्वयंवर’ नाटक में कोकिला की एक आठ साल की छोटी लड़की की भूमिका है। बचपन में मैं वह भूमिका करती थी। ‘अति आनंद फुलवी कलिका’ यह गाना नाना के साथ गाती थी। नाना और दर्शकों को मेरा वह छोटा काम बहुत पसंद आता था। उतनी ही नाना के नाटकों में काम करने का अवसर मिला। मंगलागौरी के समय मैंने अपनी नाटक में काम करने की इच्छा पूरी कर ली। हम लड़कियों का ‘क्या यह ठाठ है! राजा इससे ज्यादा क्या करेगा?’ कभी-कभी काकाओं को लगता था, कोई खास व्यंजन बनाकर मालिक के पत्तल में परोसा जाए। लेकिन नाना को यह नाटक का सारा ठाठ नाना खुद ध्यान देकर करते थे, पंक्तिभेद स्वीकार्य नहीं था। वे कहते थे, ‘सबके पत्तल में देना है। नाटक देखकर प्रशंसा भी करते थे। व्यवस्थितता पर नाना का जोर रहता था। अपना बिस्तर वे खुद लगाते थे। बाहर जाते समय अपने कपड़े खुद अपने हाथों से इस्त्री जैसी तह करके बैग में भरते थे। वे नौकर पर कभी निर्भर नहीं रहते थे। नहीं कहने को नहाने के समय उन्हें लक्ष्मण की जरूरत पड़ती थी। पुरुष भर ऊंचाई का तांबे का पीपा पानी से भरकर रखना पड़ता था। कलशी जितनी कासंडी से उनके सिर पर पानी डालना पड़ता था। पूरा पीपा खाली हो जाता था, तब नाना का नहाना खत्म होता था। गंधर्व नाटक मंडली एक बहुत बड़ा परिवार ही था। उस परिवार के कर्ता-धर्ता थे मेरे पिता। कंपनी में सभी को समान व्यवहार मिलता था। वहां छोटा, बड़ा, अमीर, गरीब ऐसा कोई भेदभाव नहीं था। लोग घर-बार भूलकर कंपनी में, नाना के प्यारे छत्र के नीचे रहने को धन्य मानते थे। काका सहस्त्रबुद्धे खाना बहुत अच्छा बनाते थे। 12:30 बजे पंक्ति बैठती थी। नाना धोती पहनकर पंक्ति में आते थे। एक बार तात्यासाहेब मिरजकर संस्थानिक भोजन के लिए आए थे। रंगोली, अगरबत्तियां, तरह-तरह के पकवान यह सब देखकर तात्यासाहेब बोले, वही मेरे पत्तल में’। काका तब सबके लिए वह व्यंजन बनाते थे, तभी नाना उस व्यंजन को हाथ लगाते थे। नाना के 75 वर्ष पूरे हुए, तब सार्वजनिक समारोह आयोजित किया गया था। महाराष्ट्र मंडल में कार्यक्रम था। बड़ा समुदाय जमा था। हार-फूल, भेंट वस्तुओं का ढेर लगा था। लोगों का उत्साह उमड़ रहा था। तभी एक व्यक्ति ने लोकमान्य तिलक की मूर्ति नाना को भेंट के रूप में दी। नाना ने मूर्ति हाथ में ली और वे भावुक हो गए। उनके पास बैठी मैं उनके आँसुओं की साक्षी थी।

पिता का प्यार

अमृत महोत्सव के समय भीमसेन जोशी, हीराबाई बड़ोदेकर, इंदिराबाई खाडिलकर ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। मुझे भी अपनी भावनाएं व्यक्त करनी थीं। मैंने गाने के लिए नाना से अनुमति मांगी। नाना ने मुझे अनुमति दी। गाना सुनने के लिए उत्सुक विशाल जनसमुदाय था। नाना को लगा, अब यह घबराएगी। इसे गाने के शब्द याद रहेंगे या नहीं, कौन जाने? मैंने ‘सौभद्र’ का ‘अरसिक किती हा शेला’ यह गाना गाना शुरू किया। तल्लीन होकर मैं गा रही थी और मेरे पिताजी, मेरे गुरु बेटी की फजीहत न हो, इसलिए गाने के अगले शब्द धीरे से मुझे बता रहे थे। जीवन में कभी यह पिता का प्यार भुलाया जा सकता है क्या? ऐसे मेरे पिता। रसिक दर्शक उनके अन्नदाता थे।जनता और जनार्दन की सेवा ही उनका जीवन था, रंगमंच का सेवक कहलाने में उन्होंने खुद को धन्य माना. अपने स्वर्गीय गीतों से उन्होंने श्रोताओं के कान तृप्त किए. अभिनय से उन्होंने पूरे महाराष्ट्र को दीवाना बना दिया. इत्र छिड़ककर रंगमंच की पूजा करने वाले दुनिया के अनोखे कलाकार मेरे पिता थे, इस बात का मुझे बहुत-बहुत गर्व है. मेरे पिता का गीत आखिरी क्षण तक मुझे उन्हीं की तन्मयता से गाने को मिले, यही मेरी दिली इच्छा है और यही मेरी उन्हें अर्पित श्रद्धांजलि है!

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