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नटसम्राट

शरद तळवलकर

सम्राट अशोक के राज्य की प्रजा इतिहास शोध का विषय है। परंतु नटसम्राट बालगंधर्व के युग के दर्शक अत्यंत संतुष्ट होते थे, यह चक्षुर्वे सत्यम् जैसा इतिहास है। उनके युग के लोग आज भी उस इतिहास को सुनाते समय भावुक हो जाते हैं। दर्शकों को अपना अन्नदाता मानने के कारण उनकी सेवा के लिए तन-मन लगाकर रंगमंच पर यह सम्राट खड़ा रहता था। उस आनंद में पहाट के मुर्गे ने कब बांग दी, दर्शकों को इसका भान नहीं रहता था। बालगंधर्व दर्शकों के साथ और दर्शक बालगंधर्व के साथ एकरूप हो जाते थे। 

वास्तवता का विचार 

भूमिका से लेकर रंगमंच के दृश्य तक वास्तवता की ओर उनका अत्यंत सूक्ष्म ध्यान होता था। ‘एकच प्याला’ नाटक में पहली बार मैंने उनके साथ तळिराम की भूमिका की थी, तब हमारी पहचान नहीं थी। उस समय मेरा कोई नाम भी नहीं था। परंतु नाटक की शुरुआत में उन्होंने मुझे पास बुलाकर कहा, “देखो, तीसरे अंक में, मेरे गले से मंगलसूत्र खींचते समय, यह न सोचना कि मैं बालगंधर्व हूँ। मैं सिंधू और तुम तळीराम, बस यही याद रखना। और मंगलसूत्र खींचने से पहले मेरे कंधे पर हाथ रखने से मत घबराना। क्योंकि आगे सुधाकर का वाक्य है, ‘तळिराम जैसे नरपशु को तुम्हारे अंग का स्पर्श करने दिया।’ अगर तुमने मुझे हाथ नहीं लगाया तो इस वाक्य का कोई अर्थ नहीं रहेगा।” उस समय न तो अकादमी थी और न ही शिविर। परंतु नाटक में वास्तवता का विचार कितनी बारीकी से किया जाता था, यह समझ में आता है। 

तिरखवाँ आए 

बालगंधर्व न केवल सुरों के साथ अपने साथियों के साथ एकरूप होते थे, बल्कि मन से भी उनके साथ जुड़े होते थे। इस संदर्भ में 1950 में मैं स्वर्गीय गणपतराव बोडस के घर ‘फाल्गुनराव’ और ‘लक्ष्मीधर’ की भूमिकाएँ सीखने के लिए ठहरा था, तब उन्होंने मुझे एक किस्सा सुनाया। उनके तबलची तिरखवाँ खाँसाहेब बहुत लापरवाह थे। एक बार प्रबंधक बापूराव राजहंस से पैसों को लेकर उनका झगड़ा हो गया और वे रामपुर चले गए। तिरखवाँ साहब के बिना तबले की संगत न होने के कारण महीने-डेढ़ महीने तक बालगंधर्व ने ‘स्वयंवर’ नाटक का प्रदर्शन नहीं किया। उस समय कंपनी का ठिकाना पुणे में था। ‘स्वयंवर’ यानी भरपूर आय वाला निश्चित नाटक। आखिरकार गणपतराव बोडस, मास्टर कृष्णराव आदि के बहुत आग्रह करने पर बालगंधर्व ने मजबूरी में ‘स्वयंवर’ नाटक का प्रदर्शन करने की अनुमति दी। बालगंधर्व बहुत नाराजगी से रंगमंच पर उतरे। उसी समय पुणे के एक कोठीवाले के यहाँ पिछले दिन ही आए तिरखवाँ साहब तबला बजा रहे थे। उस कोठीवाले के यहाँ गाने सुनने के लिए श्रोता जमा थे। उनमें से एक ने खाँसाहेब से धृष्टता से पूछा, “खाँसाहेब, आज रात बालगंधर्व का ‘स्वयंवर’ नाटक है, और आप यहाँ कैसे?” यह सुनकर तिरखवाँ साहब उठे और उस महिला से बोले, “बेटी, मुझे माफ करना, मैं जा रहा हूँ। अगर मैं नहीं बजाऊँगा तो नारायणराव कैसे गाएँगे?” ऐसा कहकर वे विक्टोरिया करके किर्लोस्कर थिएटर पहुँचे। वहाँ जो तबलची तबला बजा रहा था, उससे बोले, “अरे चल हट, आज मैं बजाऊँगा,” और उन्होंने केशवराव कांबळे द्वारा दिए गए सुर पर तबला बजाना शुरू किया। बाहर थिएटर में उनके तबले की चोट नारायणराव के कानों में पड़ी तो वे खुशी से भर गए। उन्होंने प्रबंधक बापूराव राजहंस को बुलाकर कहा, “बापू, बाहर खाँसाहेब आए हुए दिख रहे हैं। उन्हें जो चाहिए वो पैसे दे दो, मना मत करना। आज मुझे मन से गाने दो।” आगे नाटक शुरू हुआ।

तिरखवाँ के आने की खुशी बालगंधर्व को इतनी हुई कि “मम आत्मा गमला हा” इस पद की पंक्ति को वे पंद्रह-बीस मिनट तक दोहराते रहे। आखिरकार तिरखवाँ साहब भी न रह सके। उन्होंने भी गंधर्व के आने की खुशी को पहचाना और तबले का वजन हल्का करते हुए स्टेज पर रुक्मिणी से धीरे से कहा, “मालिक, आगे बढ़ो ना।” आनंद से बालगंधर्व उस दिन अपने आत्मा को हुई सच्ची खुशी को ही व्यक्त कर रहे थे। इतने वे खाँसाहेब के साथ एकरूप हो गए थे। इसे ही कहते हैं कलाकार। 

तिरखयाँ और बालगंधर्व

‘राम के बगीचे में…. 

बालगंधर्व मन से कोमल थे। इस संबंध में स्वर्गीय गणपतराव बोडस द्वारा सुनाया गया प्रसंग अत्यंत हृदयस्पर्शी है। बालगंधर्व कंपनी को श्रीमंत सयाजीराव गायकवाड का संरक्षण प्राप्त था। इसलिए वर्ष के कुछ महीने कंपनी का ठिकाना बड़ोदा में होता था। ऐसे ही एक प्रवास में ‘सौभद्र’, ‘मानापमान’, ‘मृच्छकटिक’ के प्रदर्शन हुए थे। प्रवास समाप्त होने वाला था और कंपनी मुंबई जाने वाली थी। तभी सयाजीराव गायकवाड विलायत से लौटे। उनके लिए ‘सौभद्र’ और ‘मानापमान’ के प्रदर्शन हुए। तब सयाजीराव ने गणपतराव बोडस से पूछा, “गणपतराव, नया नाटक कौन सा ला रहे हो?” इस पर गणपतराव ने बताया कि,राम गणेश गडकरी का नाटक ‘तालमी’ वगैरे लेकर पूरी तरह से तैयार है। सीनरी और कपड़े भी तैयार हैं। नाटक का संगीत सुंदराबाई ने दिया है। मुंबई में ‘एकच प्याला’ को रंगमंच पर लाने का विचार है। इस पर सयाजीराव ने कहा कि अगर ‘एकच प्याला’ तैयार है तो दरबार के लिए यहीं एक प्रदर्शन करो। श्रीमंत सयाजीराव की विनती को नकारना संभव नहीं था। साथ ही, एक रंगीन पूर्वाभ्यास भी होगा और दर्शकों की प्रतिक्रिया भी पता चलेगी, इस उद्देश्य से बालगंधर्व की अनुमति लेकर गणपतराव ने ‘एकच प्याला’ का प्रदर्शन बड़ोदा में किया। शुरू से ही प्रदर्शन शानदार चल रहा था। ‘अजि लागे हृदयी हुरहुर’ इस पद से बालगंधर्व के गायन पर सयाजीराव बार-बार घंटी बजा रहे थे। तीन अंक हो चुके थे। चौथा अंक जल्दी शुरू नहीं हो रहा था, इसलिए संदेश भेजा गया। फिर भी अंक शुरू होने के कोई संकेत नहीं दिखे। अंत में सयाजीराव स्वयं अंदर गए और बोले, “गणपतराव, चौथा अंक शुरू करो। इस नाटककार की लेखनी से मैं प्रभावित हुआ हूँ। अंक क्यों नहीं शुरू कर रहे? कोई दिक्कत है?” इस पर गणपतराव ने सयाजीराव को गडकरी के निधन की तार दिखाई और कोने में बैठे बालगंधर्व की ओर इशारा किया। बालगंधर्व फूट-फूट कर रो रहे थे। अंत में गणपतराव और सयाजीराव ने उन्हें समझाया और चौथा अंक शुरू किया। उस अंक में करुणामय सिंधू की स्थिति में स्वयं नारायणराव होने के कारण अंक अत्यंत मार्मिक हो गया। “चंद्र चवथी चा। रामाच्या ग बागेमधे चाफा नवतिचा” यह पद गाते समय “रामाच्या ग बागेमध्ये” इस पंक्ति पर बालगंधर्व का हृदय विदीर्ण हो रहा था। यह स्वाभाविक था, क्योंकि उन्हें अभी-अभी ‘राम’ के जाने की खबर मिली थी।

सच्चे वैष्णवजन

गणपतराव ने बालगंधर्व के सहज स्वभाव के बारे में एक मजेदार किस्सा सुनाया। जब भी कोई नाटक देखने आता, तो वे “या ना बाप्पा” कहकर कई लोगों को नाटक में बुला लेते। थिएटर भरा होने के कारण ऐसे में प्रबंधक को बड़ी परेशानी होती थी। बालगंधर्व के निमंत्रण पर आए लोगों को कहाँ बैठाएँ, यह समस्या उठती थी। आखिरकार प्रबंधक बापूराव राजहंस ने इसका उपाय निकाला। आए हुए लोगों को वहाँ के बेंचों पर बैठा देते। बड़े आदर से उनका नाम पूछते और रंगमंच के दरवाजे की ओर जाकर जोर से कहते, “अरे हरी, नारायणराव से कहो कि देशपांडे आए हैं।” फिर व्यवस्था देखते हुए उन व्यक्तियों से पूछते, “हरी अभी तक नहीं आया?” जब वे नहीं कहते, तो फिर रंगमंच के दरवाजे की ओर जाकर कहते, “अरे पांडू, नारायणराव से कहो कि देशपांडे, शिनोळे आदि लोग आए हैं।” इस तरह कई बार अलग-अलग नामों से वे चिल्लाते। इस बीच पहला अंक आधा हो चुका होता। अंत में ‘आधा नाटक क्यों देखें, कभी और आते हैं’ ऐसा मन में तय करके आए हुए लोग वहाँ से चले जाते।

मराठी फिल्मों के आगमन से मराठी नाट्य व्यवसाय पर प्रभाव पड़ा। वैभव के शिखर पर रही गंधर्व नाटक मंडली भी इससे अछूती नहीं रही। हर मामले में कटौती करनी पड़ रही थी। एक दिन नाटक के बाद कंपनी के लोग पत्तों पर भोजन करते देखकर बालगंधर्व की आँखों से आँसू बह निकले। यह नटसम्राट मन से सच्चा ‘वैष्णवजन’ था। वह लोगों का दुःख समझता था।

इस कंपनी की दयनीय स्थिति के बारे में श्री रणजित देसाई ने मुझे एक प्रसंग सुनाया। उम्र के कारण बालगंधर्व अब पुरुष भूमिकाएँ करने लगे थे। कंपनी का पड़ाव कोल्हापुर में था। उस समय छत्रपति राजाराम महाराज कोल्हापुर रियासत की गद्दी पर थे। उस दिन कंपनी का ‘मृच्छकटिक’ नाटक केशवराव भोसले नाट्यगृह में था। राजाराम महाराज ने बालगंधर्व को संदेश भेजा कि हम वाड़े वालों के साथ नाटक देखने आ रहे हैं। श्री रणजित देसाई उस समय राजाराम कॉलेज में थे और महाराज के साथ राजवाड़े में ही रहते थे। वे भी महाराज के साथ ‘मृच्छकटिक’ नाटक देखने गए। नाटक शुरू हुआ। फटे हुए पर्दे आदि देखकर रणजित देसाई को बुरा लगा। आगे मैत्रेय चारुदत्त से कहता है, “मित्र, एक आदमी के घुसने भर की बड़ी दरार दीवार पर है।” चारुदत्त को शंका होती है और वह मैत्रेय से कहता है, “अरे, उस वेश्या के दिए गहने ठीक हैं या नहीं, देखो।” इस पर मैत्रेय दौड़कर आकर कहता है, ‘गहने कहीं दिख नहीं रहे।’ इस पर चारुदत्त कहता है, “ठीक है। शर्विलक ने चारुदत्त के घर से खाली हाथ नहीं जाना चाहिए। पर…” यह कहकर “जन सारे मजला म्हणतिल की” यह पद गाने लगा। गाते-गाते उस पद के अर्थ के साथ उन्हें अपनी आर्थिक स्थिति याद आई और उनकी आँखों से आँसू बह निकले। वे तल्लीन होकर गा रहे थे। राजाराम महाराज भी विचलित हो गए।

अंक समाप्त होने के बाद राजाराम महाराज अंदर गए और रंगमंच से आ रहे बालगंधर्व को पास बुलाकर कहा, “देखो, जब तक मैं हूँ तुम्हें रोने की ज़रूरत नहीं। तुम्हें जो चाहिए वह बताओ।” उन्होंने दीवानजी को पास बुलाया और आदेश दिया, “दीवानजी, कल नारायण जो भी माँगे वह पैसे उसे दे देना।” ऐसी दानशीलता और ऐसा सामंजस्य आज देखने को दुर्लभ है। आगे चलकर उन्होंने कला की सेवा के लिए गरीबी को भी पूरी दृढ़ता से सहा।

1952 में मैं पुणे विश्वविद्यालय के काम के लिए सुबह की मेल से मुंबई जा रहा था। शिवाजीनगर स्टेशन पर स्वर्गीय विनायकबुवा पटवर्धन से मुलाकात हुई। मैं उनसे बात करते हुए खड़ा था। तभी सफेद हाफ पैंट, सफेद हाफ शर्ट और खादी की टोपी पहने नारायणराव बालगंधर्व स्टेशन पर आए। हम दोनों ने उन्हें नमस्कार किया। तब उन्होंने हमारे हाथ पकड़कर कहा, “आज मुंबई रेडियो पर मेरा गाना है। क्या तुममें से कोई मेरा मुंबई का टिकट कटवा देगा? रेडियो का चेक मिलते ही मैं तुम्हारे पैसे वापस कर दूँगा।” उनकी यह बात सुनकर मैं विचलित हो गया। मैं ही टिकट कटवाने वाला था। लेकिन विनायकराव ने कहा, “रुको, मैं कटवाता हूँ,” और उन्होंने नारायणराव से पूछा, “फर्स्ट क्लास का लूँ या सेकंड क्लास का?” इस पर नारायणराव ने कहा, “क्यों, मैं तुम्हारे साथ ही थर्ड क्लास में बैठूँगा।” विनायकबुवा ने टिकट कटवाकर लाया और नारायणराव हमारे साथ ही तीसरे दर्जे के डिब्बे में बैठ गए। उन पर पैसे उधार माँगने, थर्ड क्लास में यात्रा करने जैसी घटनाओं का कोई प्रभाव नहीं था। वे रेडियो पर कौन से गीत गाएँगे और उन गीतों से जुड़ी पुरानी यादों को खुलकर बता रहे थे। लेकिन मेरा मन विचलित था। जिसने कंपनी की यात्रा के लिए ट्रेन का विशेष डिब्बा रिजर्व करवाया था, आज उसे थर्ड क्लास में यात्रा करनी पड़ रही है। इसे ही नियति कहते हैं। लेकिन बालगंधर्व सचमुच योगी पुरुष थे। उन पर इसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं दे रहा था।

आज व्यवसाय में ‘एक ही प्याला’ और ‘मान-अपमान’ के सैकड़ों प्रयोगों में मैं कई आधुनिक अभिनेत्रियों के साथ काम करता हूँ। लेकिन मेरा मन लगातार मुझसे कहता है, “नहीं, वैसा बालगंधर्व फिर से नहीं होगा।”

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